मिष्ठी

माली काका बहुत ख़ुश थे ।और हों भी क्यों ना, आज उनकी जान, उनकी गुड़िया- मिष्ठी पूरे बारह मास के बाद गाँव वापस आने वाली थी| मिष्ठी के माता पिता के गुज़र जाने के बाद माली काका ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया था |

मैं उनके घर के बाहर खड़ा था । उन्हें भाग दौड़ करते देखकर ऐसा लग रहा है जैसे एक साठ वर्ष के वृद्ध में किसी चंचल बालक का वास हो गया हो | सुबह से कुल छः बार बड़े बाज़ार जा चुके थे- कभी मिष्ठी की मनपसंद चाट लाने को तो कभी मच्छरदानी खरीदने- कहीं नालायक मच्छर मिष्ठी को बीमार ना कर दें |

मिष्ठी की बस आने का समय होने को आया था, काका एक घंटे पहले ही स्टेशन के लिए निकल गए थे | मैं उस वक़्त भी उनके घर के बाहर ही था । वो घर जो साल भर से सूना था, वीरान था, आज बहुत चहक रहा था, घर की सभी वस्तुओं में जैसे जान आ गयी थी | परदे हवा के गीतों पर ख़ुशी से थिरक रहे थे, मगर इन सबसे ज़्यादा अगर कोई बेचैन था तो वो था मैं|

मुझे याद है बचपन में अकसर काका से रूठ कर मिष्ठी मेरे पास आ जाती और मुझसे घंटों बातें किया करती थी| मैं एकटक उसे ताकता रहता था | मेरा बस चलता तो मैं उसी क्षण समय को रोक देता और फिर सदियों तक उसे निहारता और उसकी चहक सुनता रहता | मैं इन्हीं कल्पनाओं में डूबा हुआ उसकी बातें सुन रहा होता था कि तबतक काका वहाँ आ जाते और उसे मनाने के अनेक प्रयास करने लगते । अंत में वो मान जाती और फिर उनके साथ चली जाती | मैं उसे जाते हुए देखता रहता और कुछ पलों में वो ओझिल हो जाती| मैं उसे रोकना चाहता, उससे थोड़ी और बातें करना चाहता लेकिन उसे काका का हाथ पकड़कर उछलते कूदते देख मेरी ये चाहत बस मेरे भीतर रह जाती थी|

मुझे याद है जब तेज़ हवा में वो अपने ज़ुल्फ़ों से खेलती तो वो बहुत प्यारी लगती थी | मुझे याद हैं उसकी नाज़ुक उँगलियों के स्पर्श से मेरे पूरे शरीर में कंपन उठ जाती थी | मैं उसे छूना चाहता लेकिन मैं फिर उसकी आँखों में मासूमियत देखकर मेरी ये चाहत बस मेरे भीतर रह जाती थी |

मुझे आज भी याद है जब कभी मेरी वजह से उसे चोट लग जाती तो मैं ख़ुद को किसी अपराधी जैसा महसूस करता था | मैं मुरझा जाता था | मैं झट से उसका हाथ खींच कर उसके चोट पर मरहम लगाना चाहता लेकिन उसकी नम आँखें मुझे और कमज़ोर कर देतीं और मेरी ये चाहत भी बस मेरे भीतर रह जाती थी|

मुझे आज भी याद है जब वो शहर जाने को घर से निकली थी तब उसने मेरे पास आकर धीरे से मेरे कानों में कहा था- “मुझे भूलना मतमैं उसे कैसे भूल सकता हूँ, उसका मुस्कुराना, उसका रोना, उसका मेरे पास बैठना मुझे सब याद है और हमेशा याद रहेगा- मैं उसका हाथ पकड़कर उसे ये सब बताना चाहता था, उसे शहर जाने से रोकना चाहता था लेकिन उसके उत्साह को देखकर मेरी ये चाहत भी बस मेरे भीतर रह गयी |

आज वह वापस आ रही थी| मैं बस उसके बारे में सोच रहा था- एक साल में वो कितनी भी बदल गयी हो पर इन सारे बदलाव के बाद भी एक बात तो पक्की है, मुझे वो आज भी याद करती होगी । जब वो आएगी तब अपने घर के अंदर जाने से पहले वो मुझे देखकर थोड़ा शर्माएगी । अरे नहीं अब वो शहरी हो गयी है । शहरी लोग शर्माते कहाँ हैं- वो झट से मुझे गले से लगा लेगी और कहेगी- “दोस्त तुम्हें बहुत मिस किया।” मैं भी थोड़ा हिचकिचाते हुए शहरी लोगों की भाषा में कहूँगा- “मिस्ड यू टू” ।

ये उसके लिए मेरा प्यार नहीं था, इस एहसास को प्यार या इश्क़ का नाम देकर मैं इसकी तौहीन नहीं करना चाहता। ये रूहानी एहसास इस दुनिया के समझ से परे है । ये रूहानी एहसास, मेरी समझ से परे है ।
मैं इन ख़यालों में डूबा ही था कि सामने से काका का ताँगा आता दिखाई दिया । एक साल का इंतज़ार जो ना जाने कितनी सदियों के बराबर प्रतीत हो रहा था, अब ख़त्म हो गया था । मेरी निगाहें उसपर जा टिकी | साँझ के बेला में उसके बाल जैसे किसी सुनहरे रेशम के धागे की तरह लहरा रहे थे । उसके चेहरे पर सूरज से तेज़ के साथ चाँद सी हया भी थी | वो ख़ूबसूरत लग रही है, बेहद ख़ूबसूरत  ताँगा घर की चौखट पर आ रुका । मैंने ख़ुद को थोड़ा सँवारा और चुपचाप घर के बाहर से उन्हें  देखने लगा । मैं बस उस पल का इंतज़ार करने लगा जब मिष्ठी ताँगे से उतरकर मुझे गले से लगा ले । उस पल का भी आग़ाज़ हो गया । वह ताँगे से उतरी। हमारी नज़रें टकराईं । उसकी आँखों की ख़ूबसूरती तो कोई शायर भी ना बयाँ कर पाता । ऐसा लग रहा था मानो जैसे मैं अंधेरे में भटकता कोई पथिक था और उसकी चमकती आँखें किसी दीप की ज्योति की तरह मुझे रस्ता दिखा रहीं थीं, मुझे ज़िंदगी दे रही थीं । मगर अगले ही पल ऐसा लगा जैसे ख़ुद उस दीप की ज्योति ने मुझे वापस अंधेरे में धकेल दिया हो। मुझे अंधेरे में भटकने के लिए छोड़ दिया हो । हमारी नज़रें मिली ज़रूर थीं पर अगले ही पल उसने मुझसे नज़रें फेर लीं । उसकी निगाहों ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया । वह अपने घर की तरफ़ जाने लगी । अपने घर की तरफ़ बढ़ते उसके हर क़दम के साथ मैं टूटता जा रहा था ।मैं उसे रोकना चाहता था, उससे सवाल करना चाहता था । उसपर अपना हक़ जताना चाहता था, उसे रोककर मैं ख़ुद को टूटने से रोकना चाहता था लेकिन.. लेकिन उसकी आँखो में अपने लिए अजनबियत देखकर ये चाहत भी.. बस मेरे भीतर रह गयी । मैं उसकी ज़िंदगी से दूर हो गया । कुछ ही पल में एक बार फिर वह मेरे आँखों के सामने से ओझिल हो गयी… और मैं हर बार की तरह खड़ा खड़ा ये देखता रहा ।

आख़िर एक गुलाब का पौधा और कर भी क्या सकता था

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sketch credits- Gaurangi Tripathi

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